पूजन में जो भी त्रुटि/ न्युनता रह जाती है, आरती से उसकी पूर्ति होती है। पूजा के अंत में हम सभी उस पुजन के प्रधान देवता की आरती करते हैं। आरती पूजन का एक मह्त्वपूर्ण भाग है! आरती से इष्टदेवता को प्रसन्न किया जाता है। इसमें इष्टदेव को दीपक दिखाने के साथ उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता है। यह एक देवता के गुणों की प्रशंसा गीत है। आरती आम तौर पर एक पूजा, अनुष्ठान या भजन सत्र के अंत में किया जाता है। यह पूजा समारोह के एक भाग के रूप में गाया जाता है। सामान्यतया एक से लेकर 108 बत्तीयों से आरती की जाती है । इसके अतिरिक्त कपूर से भी आरती होती है। कुमकुम, अगर, कपूर धूप और चन्दन, अथवा रुई और घी की बत्तियाँ बनाकर शंख, घंटा, धडियाल, मृदंग आदि वाद्ययन्त्र बजाते हुये भगवान जी की आरती करनी चाहिए।
आरती को लेकर हमारे 'स्कंदपुराण' में भी कहा गया है- “मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् पूजनं हरेः । सर्वे संपूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे।।“ अर्थात् – पूजन मंत्रहीन और क्रियाहीन होने पर भी नीराजन आरती कर लेने से उसमें सारी पूर्णता आ जाती है। आरती करने का ही नहीं, आरती में सम्मिलित होकर उसे देखने वा ग्रहण करने का भी बड़ा पुण्य होता है। जो धूप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, उसके समस्त पापों का शमन होता है और भगवान् विष्णु के परमपद को प्राप्त होता है।